History of Kuchaman Fort | इतिहास के आइने में कुचामन
जागीरी किलों के सिरमौर कुचामन किले के इतिहास को लेकर इन्टरनेट पर बड़ी भ्रान्ति फैली है | इन्टरनेट पर इसे प्रतिहार कालीन बता कर प्रचारित किया जाता है, पर हमें आज तक इतिहास की किसी किताब में प्रतिहार काल में इसके निर्माण का जिक्र नहीं मिला | इस क्षेत्र पर राठौड़ वंश से पहले गौड़ राजवंश का शासन था, जिनकी राजधानी मारोठ थी, यदि यह किला उस वक्त बना होता तो गौड़ मारोठ में क्यों रहते ? पर यह हो सकता है यहाँ कभी गौड़ शासकों द्वारा कोई सुरक्षा चौकी के रूप में छोटे किले का निर्माण कराया और बाद में कुचामन के संस्थापक रहे जालम सिंह ने इसे विस्तार दिया हो |
इस किले और यहाँ के इतिहास को लेकर "कुचामन का इतिहास" नामक पुस्तक में अच्छा प्रकाश डाला गया है |
"कुचामन का इतिहास" के लेखक नटवर लाल जी बक्ता ने अपनी के पुस्तक के "इतिहास के आइने में कुचामन" शीर्षक वाले पाठ में लिखा है कि-
"आज कुचामन के बुद्धिजीवी एक स्वर में स्वीकार करते हैं कि राजा जालिमसिंह के पूर्व कुचामन चार- पाँच घरों की बस्ती या ढाणी मात्र था, जिसे कुचबन्दियों की ढाणी कहा जाता था । पदमपुरा रोड पर वर्तमान गढ़ी, गढ़ी के उत्तर में ठाकुरों के श्मशान, गौशाला बीड़ में स्थित कुछ पुरानी दीवारों के अवशेष आदि इसके प्रमाण हैं। एक सशक्त प्रमाण ठाकुरों के श्मशान में स्थित सती माता का मन्दिर भी हैं। प्रमाण है कि ठाकुर जालिमसिंह अपने भाइयों से नाराज होकर अपनी माता हाडीजी के साथ दिल्ली जाने के क्रम में कुचामन पहुँचे और कुचबन्दियों की ढाणी में रुके। वहाँ उनको त्रिकोण पर्वत पर धुआँ उठता दिखाई दिया। वहाँ पर पहुँचने पर (अल्लूनाथजी) बनखण्डी बाबा के दर्शन हुए तथा उनके आशीर्वाद से कार्तिक कृष्ण चौदह संवत् 1791 सोमवार (1735 ई.) को इस किले की नींव रखी तथा कुचामन नगर की स्थापना की।
इसके पूर्व कुचामन जांगल प्रदेश था अर्थात् यहाँ कुचों के जंगल ही जंगल हुआ करते थे । इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते मुझे यह बात स्वीकार नहीं थी क्योंकि कुचामन में अनेक स्थान पर या यों कहें कि सर्वत्र सौ से तीन सौ फीट तक कुएँ खोदे गये हैं, बावड़िया हैं, यदि यहाँ पुराना शहर होता, तो कुओं की खुदाई में उनके अवशेष मिलने चाहिए थे। परन्तु ऐसा नहीं है ।
बक्ता जी लिखते हैं - इतिहास साक्षी है कि नगरों का विकास प्रायः पुराने शहर के दक्षिण में ही होता है क्योंकि—
1. ग्लोब पर भारत का मानचित्र दीवार पर लटके कैलेण्डर की तरह है, जहाँ ऊपर (उत्तर दिशा) में हिमालय और नीचे (दक्षिण में) समुद्र है।
2.पानी का स्वाभाविक बहाव भारत में इसलिए उत्तर से दक्षिण की ओर होता है ।
3. नगरों के निर्माण में पानी की निकासी का सदैव ध्यान रखा जाता है। यदि नगर को पुराने नगर के उत्तर में बसाया जाये तो प्राचीन नगर पानी के बहाव के रास्ते में आता है। अतः नवीन नगर दक्षिण की ओर ही बसते हैं।
4. यदि प्राचीन नगर के दक्षिण में कोई रुकावट हो, पहाड़ हो, नदी हो, झील हो तो नगर का विस्तार पानी के बहाव की दृष्टि से उत्तर, पूर्व, पश्चिम हो सकता है ।
इस दृष्टि से यदि जालिमसिंह के पूर्व कुचामन था तो वह किले के उत्तर में रहा होगा। नटवर लाल जी के इस मत के समर्थन में आशा की एक किरण देवदत्त शास्त्रीजी द्वारा सम्पादित पुस्तक सोमानी संदर्भ के पृ.सं. 82-83 में दृष्टिगोचर हुई | 1561 ई. में गुजरात का मुसलमान शासक मुजफ्फर खाँ फतेहपुर को केन्द्र बनाकर आस-पास के क्षेत्र में शासन करता था । मौलासर उसी के शासनान्तर्गत था। मुजफ्फर खाँ ने झाड़ोद पट्टी में दौलतपुरा के तालुकेदार के अधीन मौलासर का शासन सौंप रखा था । सात वर्ष बाद 1568 ई. में जोधपुर के राठौड़ राजवंश ने मुसलमान शासक से छीनकर के उसे अपने राज्य के अधीनस्थ कुचामन तालुका के अन्तर्गत मौलासर के शासन की व्यवस्था कर दी।
चूँकि राजा जालिमसिंह अपने भाइयों से नाराज होकर या अपने भाइयों को नाराज करके दिल्ली जा रहे थे । अतः वे मीठड़ी, नावां, श्यामगढ़, मारोठ होकर दिल्ली नहीं जा सकते थे । अतः उन्होंने दिल्ली जाने के लिए कुचामन का मार्ग चुना होगा ।
ऐसी स्थिति में उस समय कुचबंदियों की ढाणी के रूप में कुचामन का अस्तित्व रहा होगा क्योंकि वहाँ से तत्कालीन कुचामन कम-से-कम 8 या 10 किलोमीटर उत्तर में था ।